बदल सकता है रक्षा क्षेत्र का परिदृश्य
इसके दो कारण हैं। पहला, इससे देश पर कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ने वाला है। बल्कि यह रक्षा क्षेत्र के औद्योगिक परिसर के लिए अधिक धन ला सकता है, जहां सुधार की आवश्यकता है।
और दूसरा यह कि ऐसा अवसर कम ही आता है, जब व्यापक आर्थिक पहल की जाए, और इस तरह अब यह करने का मौका था, इसलिए ऐसा किया गया है।
विज्ञापन भारत दुनिया के सबसे बड़े हथियार खरीदारों में से एक है, जिसके सशस्त्र बलों की जरूरत अगले दशक तक 200 अरब डॉलर से अधिक की है।
इसने भारत को हथियार निर्यातकों का पसंदीदा बना दिया है, विशेष रूप से अमेरिका, फ्रांस और रूस की नजर में। और भारत अपनी इस क्रय क्षमता का उपयोग कर राजनयिक लाभ लेने में कभी हिचकिचाया नहीं है! हालांकि ताजा घोषणा के बाद इसमें बदलाव आ सकता है, जिसके तहत रक्षा विनिर्माण में एफडीआई की सीमा अब स्वतः 49 फीसदी से 74 फीसदी हो जाएगी और आयातित हथियारों की एक नकारात्मक सूची बनाने की जरूरत होगी।
इससे प्रधानमंत्री की 'मेक इन इंडिया' पहल को बढ़ावा मिलेगा, जिसने रक्षा क्षेत्र में बहुत कम निवेश हासिल किया है और हथियारों के आयात का बिल कम होगा। भारत अत्याधुनिक रॉकेट और मिसाइलों का उत्पादन क्यों करता है, इसका कारण यह है कि भारत के रॉकेट वैज्ञानिकों को उन्नत देशों के रणनीतिक प्रतिबंधों के भीतर काम करना पड़ा है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी 'बड़ी लीग' में प्रवेश न कर सके।
इसलिए भारत के वैज्ञानिकों ने उपग्रह प्रक्षेपण प्रणाली और मिसाइलों का उत्पादन किया है, जिसकी मांग अब दूसरे देशों द्वारा की जाती है। हालांकि ये पी 5 देश अपनी हथियार प्रणाली को कुछ प्रतिबंधों के साथ बेचने से खुश थे।
इसलिए भारत के सशस्त्र बलों ने अक्सर महत्वपू्र्ण खरीद के रूप में विदेश से इस तर्क के साथ भारी हथियार खरीदे कि भारत के रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रम (डीपीएसयू ) उनकी जरूरतों को पूरा करने में विफल रहे हैं।
और यदि निजी क्षेत्र ने गुणवत्तापूर्ण हथियार विकसित भी किए (जैसे भारत फोर्ज ने तोपखाने बनाए थे), तो उसे सैन्य एवं नौकशाही की मिलीभगत से साउथ ब्लॉक के गलियारे से बाहर ही रखा गया। इससे पहले 2016 में, मोदी सरकार ने उम्मीद की थी कि स्वचालित मार्ग से 49 प्रतिशत की संशोधित एफडीआई सीमा और खास मामले में 100 प्रतिशत तक रक्षा क्षेत्र में एफडीआई आएगी। लेकिन भारत को वर्ष 2017-18 में (10,000 डॉलर) 7,59,325 रुपये और 2018-19 में ( 21 लाख डॉलर) 16,55,32,850 रुपये मिले, जो नगण्य है।
लेकिन अब यदि कंपनी के 74 फीसदी शेयर को विदेशी मूल उपकरण निर्माता नियंत्रित करेगा, तो उसे निवेश करने की इच्छा होगी, क्योंकि यह डीपीएसयू की 'सरकारी' कार्य संस्कृति को बदल सकता है, और इस प्रकार विश्व स्तरीय सैन्य प्रौद्योगिकी का उत्पादन होगा। कथित तौर पर इसी कारण राफेल लड़ाकू विमान के निर्माता डसॉल्ट एविएशन के साथ सौदा करने में इतनी देर लगी, क्योंकि उन्होंने एक भारतीय सार्वजनिक उपक्रम (एचएएल) को अपना भागीदार बनाने से इनकार कर दिया था।
भारत के अधिकांश बड़े व्यापारिक घराने (जिन्होंने बड़े संयंत्र और विनिर्माण आधार स्थापित किए हैं) डीपीएसयू और उनके नौकरशाहों से काफी निराश हैं, जिन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि चीजें वैसी ही रहें, जैसी वे हैं। इसी के चलते रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों में भारत एफडीआई हासिल करने में नाकाम रहा।
नतीजतन इसने भारत में एक प्रभावी रक्षा विनिर्माण आधार के विकास को रोक दिया और रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को किनारे कर दिया। निर्णय लेने में देरी, 'तदर्थ' आदेशों को रखने, निविदाओं को रद्द करने और सशस्त्र बलों के अनुचित गुणात्मक जरूरतों के कारण रक्षा विनिर्माण क्षेत्र कुछ ही निश्चित कंपनियों के लिए रह गया।
पर यदि नई पहल से विदेशी और भारतीय निवेशक आकर्षित होते हैं, तो लंबे समय से बाकी डीपीएसयूज का निगमीकरण होगा, न कि निजीकरण, जैसा कि उनके कर्मचारी संगठनों को डर है।
यह हमारे निजी क्षेत्र को सशस्त्र बलों की फेहरिस्त को स्वदेशी बनाने का बराबरी का मौका देगा। इस समय तीनों सैन्य सेवाओं को बहुत से हथियारों की जरूरत है, जो देश की सुरक्षा जरूरतों के लिए आवश्यक हैं। अर्थव्यवस्था पर कोरोना संकट के प्रभावों के बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती, खासकर इसलिए कि चीन और पाकिस्तान मिलकर भारत को सीमा पर आतंकी खतरों से अस्थिर करना चाहते हैं।
दुनिया का कोई भी देश दो परमाणु संपन्न राष्ट्रों का सामना नहीं कर रहा है, जो न केवल भड़काने वाली कार्रवाई करते हैं, बल्कि जिनका उद्देश्य भारत के उदय को चुनौती देना है। हालांकि इस प्रक्रिया से उत्पादन करके सशस्त्र बलों की जरूरतों को पूरीकरने में कई साल लगेंगे।
अतीत के अनुभव बताते हैं कि अर्जुन टैंक को बनाने में सोलह साल और तेजस के निर्माण में 30 साल लगे। और इस देरी का सारा दोष सशस्त्र बलों में नहीं मढ़ा जा सकता। हथियारों की परीक्षण प्रक्रिया बहुत लंबी होती है, जिसका जिक्र वित्त मंत्री ने एफडीआई के नियम में बदलाव की घोषणा करते हुए भी की। पर अब चीजें बदल सकती हैं। भारत को तत्काल अपनी रक्षा खरीद प्रक्रिया को सरल बनाने, भारतीय कंपनियों को पर्याप्त ऑर्डर देने और उत्पादन के लिए उचित समय देने की आवश्यकता है। लेकिन सबसे ज्यादा निर्णय लेने की प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत है।
इतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि डीपीएसयू और भारत के उद्योग को आश्वस्त खरीद ऑर्डर के साथ-साथ रक्षा उपकरणों पर स्पष्ट निर्यात नीति की आवश्यकता है, जिसका उत्पादन तो हुआ, लेकिन सशस्त्र बलों द्वारा उपयोग नहीं किया गया। भारत को उन रक्षा उपकरणों के निर्यात की जरूरत है, जो डीपीएसयू या निजी निर्माताओं द्वारा पहले से ही तैयार हैं। जब भारत स्वतंत्र हुआ, उसके एक वर्ष बाद इस्राइल राष्ट्र बना और अगर वह एक प्रमुख रक्षा निर्यातक बन सकता है, तो भारत एकाध दशक में क्यों नहीं बन सकता? ऐसा करने के लिए भारत के रक्षा उद्योग के पास दिमाग और इच्छा, दोनों है।
केवल बाधाएं बहुत ज्यादा हैं। घरेलू प्रतिबंध के अलावा और कोई कारण नहीं है, जो भारत को ऐसा करने रोक सके। (लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं।
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